संस्कार हिंदी कविता

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पाठशाला नहीं होतीं जो जीवनमूल्य सिखलायें।
स्वतः माँ-बाप से बच्चों के जीवन में उतर आयें।
विरासत में मिले हमको मगर हमने ही ठुकराए।
दोष अपना है गर ये कारवां आगे न बढ़ता है॥

लड़ी ये संस्कारों की पीढि़यों में पनपती है।
कड़ी जुड़ती है कड़ियों से तो सजती है संवरती है।
अगर टूटी कड़ी कोई लड़ी पूरी बिखर जाये।
नहीं संस्कार जिसमें वो कहाँ इंसान लगता है॥

दौड़ में आधुनिकता की एक इंसा बने रहना।
रहें संवेदना जीवित उन्हें भी सींचते रहना।
धरोहर संस्कारों की पूर्वजों की अमानत है।
बचाना और बढ़ाना हम सभी का फर्ज बनता है॥