मातृभाषा हिंदी पर कविता : बिंदी
मातृ भाषा हिंदी पर कविता |
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स्वर-व्यंजन ही नहीं मात्र यह भारत माँ की बिंदी है।
तोड़ी कितनी बार बिखेरी फिर भी अब तक जिंदी है॥
मातृभूमि नीचे कर आँखें पीट रही है अपना मांथा।
लगता है हो गई बाबरी देख-देख अपनों की भाषा।
हिमगिर भी गंभीर हो गया चिंतित है कुछ बोल न पाता।
देख रहा टकटकी लगाए खंडित होती अपनी आशा।
गुमसुम सरिता का जल कहता मुझको भी अब मौन सुहाता।
निज भाषा को मान नही तो कैसे गाऊं कल-कल गाथा।
अंग्रेजी सरपट दौड़े यहाँ हिंदी की गति मंदी है॥
राम-राज्य में शासन था केवल शासक में भक्ति का।
कौरव पाण्डव कृष्ण काल में शासन आया युक्ति का।
चंद्रगुप्त गौतम अशोक का शासन रहा विरक्ति का।
है इतिहास गवाह हमारा मुगल काल था तृप्ति का।
राजपूत राणा प्रताप और शिवा का शासन शक्ति का।
ब्रिटिश राज में मूल-मंत्र था केवल एक विभक्ति का।
अंग्रेजी आशक्ति आज की हिंदी पर पाबंदी है॥
झाँसी वाली रानी ने इसकी खातिर ल्हासें पाटी।
आँख उठाकर देखो अबतक बता रही हल्दी घाटी।
जली रानियाँ भस्म हुयीं पर लज्जित नहीं करी मांटी।
है चित्तौड़ गवाह हमारी यही रही है परिपाटी।
अगणित हुए शहीद जिस्म पर कितनों ने खायी लाठी।
झुके ने हिंदी-प्रेमी चाहे जेल यातनाऐं काटी।
लोहा लेती रही शत्रु से यही बनी रण-चण्डी है॥
एक सूत्र में राष्ट्र पिरोकर जय हो जय हो कहना है।
निज भाषा को अपनाकर खुद को सम्मानित करना है।
प्रेम त्याग बलिदान का पौधा पूर्ण पल्लवित करना है।
हिंदी के उत्थान में अब सर्वस्व समर्पण करना है।
लिखना पढ़ना और बोलना सब हिंदी में करना है।
लाज शर्म संकोच त्याग कर हिंदी हिंदी कहना है।
राष्ट्र और कल्याण की केवल हिंदी ही पगडंडी है॥