गेहूं पर कविता
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क्षमता थी जितनी भंडारण की,
पहले तो ज्यादा खरीद कराई,
डाल दिया फिर गेहूं खुले में,
सड़ गया अन्न हजारों बोरी,
एक नहीं कई जगह बताई,
बॉंटा नही वो गरीबों में बेशक,
फेंक दिया और आग लगाई॥
सोच हमारे मंत्री जी की,
आज सभी के सम्मुख आई,
सुप्रीम कोर्ट के आदेश को भी,
माने नहीं उल्टी बात बनाई,
बॉंट नहीं सकते ऐसे बोले,
बरबादी हर साल होती गिनाई,
भूखी बेचारी वो दुखियारी थी,
खाने को लिया तो मार लगाई॥