समाज पर कविता
देखते लाखों-करोड़ों पर नहीं उंगली उठाते।
पीटता रहता वो उसको और हम ताली बजाते॥
राज गोरों ने बहुत हम पर किया।
गिल्ली-डंडा खेल हमसे ही लिया।
नीति अपनी दोहरी फिर थोपकर
कह दिया क्रिकेट दुनियाँ को दिया।
गेंद-बल्ले का ये ऐसा खेल है।
जहाँ एक-दूजे का नहीं कोई मेल है।
बात इस बेमेल की ही आज हम सबको सुनाते।
और कारक छोड़ सीधे गेंद-बल्ले पर हैं आते॥
राज बल्ले का यहाँ अपना रहे।
उल्टा-सीधा आड़ा-तिरछा सब चले।
आगे-पीछे दाएँ-बाएँ घूमकर
खेलता जैसे उसे अच्छा लगे।
नियम तो इसके लिए बस नामके।
समय या संख्या इसे नहीं बांधते।
सैकड़े पर सैकड़ा वो दोहरा-तिहरा बनाते।
और लहराकर हवा में श्रेष्ठता अपनी जताते॥
गेंद पर थोपी बहुत सी बंदिशें।
ना इधर ना उधर सौ नसीहतें।
दायरे में रहना उसको बोलकर
कैद कर दीं उसकी सारी हशरतें
लालिमा उतरी या मैली हो गई।
छोड़ देते हैं उसे लाते नई।
चक्र दुहराते रहें और दूजी-तीजी-चौथी लाते।
अलविदा पहली को कहते फिर नहीं वापस बुलाते॥
कविता सुनें
Watch the Poem
इतने पर भी खेल खेलती रहे।
जिस्म पर प्रहार झेलती रहे।
जीत हो हार उसे भूलकर
बंधनों की डोर में बंधी रहे।
हौसले की जैसे कोई खान है।
सहनशक्ति को मेरा प्रणाम है।
डैड और नो बौल जैसे नाम से इसको चिढ़ाते।।
इतनी ही काफी नहीं बेदर्द जुर्माना लगाते॥
आओ ऐसी नीतियों को तोड़ दें।
दोहरे नियमों पर चलना छोड़ दें।
हक बराबर के सभी को बांटकर
राह समता की तरफ हम मोड़ दें।
बल्ला फिर इतना नहीं इतराएगा।
जब गेंद को समकक्ष अपने पाएगा।
दो बराबर के जहाँ उस खेल को सच्चा बताते।
इसलिए आओ सभी असमानताओं को मिटाते॥
पीटता रहता वो उसको और हम ताली बजाते॥
राज गोरों ने बहुत हम पर किया।
गिल्ली-डंडा खेल हमसे ही लिया।
नीति अपनी दोहरी फिर थोपकर
कह दिया क्रिकेट दुनियाँ को दिया।
गेंद-बल्ले का ये ऐसा खेल है।
जहाँ एक-दूजे का नहीं कोई मेल है।
बात इस बेमेल की ही आज हम सबको सुनाते।
और कारक छोड़ सीधे गेंद-बल्ले पर हैं आते॥
राज बल्ले का यहाँ अपना रहे।
उल्टा-सीधा आड़ा-तिरछा सब चले।
आगे-पीछे दाएँ-बाएँ घूमकर
खेलता जैसे उसे अच्छा लगे।
नियम तो इसके लिए बस नामके।
समय या संख्या इसे नहीं बांधते।
सैकड़े पर सैकड़ा वो दोहरा-तिहरा बनाते।
और लहराकर हवा में श्रेष्ठता अपनी जताते॥
गेंद पर थोपी बहुत सी बंदिशें।
ना इधर ना उधर सौ नसीहतें।
दायरे में रहना उसको बोलकर
कैद कर दीं उसकी सारी हशरतें
लालिमा उतरी या मैली हो गई।
छोड़ देते हैं उसे लाते नई।
चक्र दुहराते रहें और दूजी-तीजी-चौथी लाते।
अलविदा पहली को कहते फिर नहीं वापस बुलाते॥
कविता सुनें
Watch the Poem
इतने पर भी खेल खेलती रहे।
जिस्म पर प्रहार झेलती रहे।
जीत हो हार उसे भूलकर
बंधनों की डोर में बंधी रहे।
हौसले की जैसे कोई खान है।
सहनशक्ति को मेरा प्रणाम है।
डैड और नो बौल जैसे नाम से इसको चिढ़ाते।।
इतनी ही काफी नहीं बेदर्द जुर्माना लगाते॥
आओ ऐसी नीतियों को तोड़ दें।
दोहरे नियमों पर चलना छोड़ दें।
हक बराबर के सभी को बांटकर
राह समता की तरफ हम मोड़ दें।
बल्ला फिर इतना नहीं इतराएगा।
जब गेंद को समकक्ष अपने पाएगा।
दो बराबर के जहाँ उस खेल को सच्चा बताते।
इसलिए आओ सभी असमानताओं को मिटाते॥