गंजापन पर कविता
कविताएं सुनें : Watch my Poetry
गंजा मुझे बना दे मेरी सुन ले हे भगवान!
बालकपन में माँ ने सिर की अच्छी करी मलाई।
गंजे सिर पर तभी तो काली-घनी फसल लहराई।
जुल्फों की ही माया थी जो पड़ गए मेरे फेरे।
वरना ऐसी शक्ल से क्वारे ही मर गए बहुतेरे।
रंग-रूप की पूजा करते देखे हैं इंसान॥
जिस दिन से वो घर में आईं फूली नहीं समाती।
बालों में उंगलियां फेरतीं गालों तक ले आती।
कहतीं कितने प्यारे लगते कैसे तुम्हें बताऊं।
जी करता है जूं बनकर इन जुल्फों में बस जाऊं।
बाल-बगीचा नहीं तुम्हारी जुल्फें मेरी जान॥
बदला वक्त और चाहत जुल्फों को घास बताए।
कहतीं जितने बाल उड़ें उतनी ही दौलत आए।
सफाचट हो जाए तो लक्ष्मी घर में न समाए।
बुद्धि से तो जुल्फों का उल्टा संबंध बताए।
हवा रोकते बाल दिमागी-पुर्जे करें न काम॥
घुस गई बात खोपड़ी में गंजा होने की ठानी।
किसी ने कोई तेल बताया किसी ने पत्थर-पानी।
सब जुगाड़ कर लिए मगर ये फसल नहीं मुरझाई।
नए-नए तेलों से उल्टी ज्यादा रौनक आई।
माँ के हाथों का जादू मैं देख-देख हैरान॥
हार मान उनसे ही बोला धन और बुद्दि दिलाओ।
पकड़ो हाथ उस्तरा अपने टकला मुझे बनाओ।
हॅंसकर बोलीं बहक गए हो शायद पीकर आए।
जुल्फ नहीं तुम इंसान हो एक इसीलिए मन भाए।
रंग-रूप धन-दौलत सब कुछ नहीं मेरे श्रीमान॥
संबधों की सड़क दिनों-दिन संकरी होती जाऐं।
जीवनसाथी पहले मन से मन का मिलन कराऐं।
फिर बंधन में बंधें और एक-दूजे के हो जाऐं।
रंग-रूप की चकाचौंध तब भ्रमित नहीं कर पाऐं।
टूटे नहीं भरोसा आँधी आए या तूफान।।
काया चाहे जैसी हो इंसान हों बस इंसान!