बेटी पर कविता

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सन्नाटा था दूर गांव से एक पुराना कुंआ था।
हार मान कर जीवन से एक वृद्ध वहां पर पहुंचा था॥
लिए पुलिंदा अपमानों का तिरस्कार की गठरी भी।
बूढा बदन बोझ भारी वही कुंआ उसकी मंज़िल थी॥
कंपित–कदम एक बाहर एक कुंए में लटकाया था।
तभी किसी ने दादाजी कहकर उसको चौंकाया था॥
अकस्मात ही एक बालिका पास में उसके पहुंची थी।
दौड़ लगाकर आई थी धुकधुकी जोर से चलती थी॥
बोली दादाजी तुम भी कहाँ–कहाँ भटका करते।
घर में क्या होता रहता है उसका ध्यान नहीं रखते॥
मान लिया मैं छोटी हूं पर बुरा–भला पहचानती हूं।
घर में कौन–कौन कैसा है आपसे ज्यादा जानती हूं॥

पापाजी और चाचाजी हर समय झगड़ते रहते हैं।
कभी ज़मीन वजह बनती कभी जायदाद पर लड़ते हैं॥
मम्मी और चाचीजी में तो एक मिनट नहीं बनती है।
अम्मां और आपको लेकर हरदम झगड़ा करती हैं॥
आज सुबह की बात है अम्मां चाची से ऐसे कहतीं।
रोटी गरम बना दे बेटी ठंडी मुझसे नहीं चबती॥
चाचा बीच में बोल पड़े जैसा मिलता चुप से खा लो।
गरम–गरम खाना है तो फिर और कहीं डेरा डालो॥
अम्मां बोलीं बेटा क्या रोटी को भी तरसाओगे।
नौ महीने तक पेट में रखा यों ही फ़र्ज़ निभाओगे॥
चाचा बोले ये अहसान भी आज उतारे देता हूं।
बोलो नौ महीने का किराया अभी चुकाए देता हूँ॥

बेबस और लाचार थीं अम्मां फूट–फूट कर रोती थीं।
सारी कसर हो गई पूरी बार–बार यही कहती थीं॥
वाह रे बेटा आज तो माँ की ममता का भी मोल किया।
तार–तार कर दिया मेरा दिल सौ टुकड़ों में तोड़ दिया॥
रोते–रोते फिर अम्मांजी पास आपके आईं थी।
जो कुछ हुआ आज घर में वो आपको भी बतलाई थीं॥
सुनकर यहां चले आए सब बुरी–भली सह लेते हो।
आज एक मेरी सुन लो फिर देखूंगी क्या करते हो॥

अब तक तो दादाजी मैं सब सहती रही गुज़ार गई।
पर बात किराये की तो मेरे चीर कलेजे पार गई॥
जीना है धिक्कार मुझे इस दुनियां में नहीं रहना है।
आज ठान ली है मैंने इस कुंए में गिरकर मरना है॥
सुनते ही गुड़िया की बातें दादाजी के होश उड़े।
पैर कुंए से बाहर आए झटके में हो गए खड़े॥
बाँहों में भर लिया उसे फिर चुंबन की बौछार करी।
बांध सब्र का टूट गया और आंसू की बन गई लड़ी॥
उंगली पकड़ चल दिए घर को लाठी को वहीं भूल गए।
गुड़िया उनकी लाठी बन गई सारे शिकवे दूर हुए॥

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कविता सुनें : Watch the Poem मैं और मेरी जया दोनों खुशहाल एक था हमारा नटखट गोपाल चौथी में पढ़ता था उम्र नौ साल जान से प्यारा हमें अपना लाल तमन्ना थी मैं खूब पैसा कमाऊँ अपने लाडले को एक बड़ा आदमी बनाऊं उसे सारे सुख दे दूँ ऐसी थी चाहत और देर से घर लौटने की पड़ गई थी आदत मैं उसको वांछित समय न दे पाता मेरे आने से पहले वह अक्सर सो जाता कभी कभी ही रह पाते हम दोनों साथ लेशमात्र होती थीं आपस में बात एक दिन अचानक मैं जल्दी घर आया बेटे को उसदिन जगा हुआ पाया पास जाकर पूछा क्या कर रहे हो जनाब तो सवाल पर सवाल किया पापा एक बात बताएँगे आप सुबह जाते हो रात को आते हो बताओ एक दिन में कितना कमाते हो ऐसा था प्रश्न कि मैं सकपकाया खुद को असमंजस के घेरे में पाया मुझे मौन देख बोला क्यों नहीं बताते हो आप एक दिन में कितना कमाते हो मैंने उसे टालते हुए कहा ज्यादा बातें ना बनाओ तुम अभी बच्चे हो पढाई में मन लगाओ वह नहीं माना, मेरी कमीज खींचते हुए फिर बोला जल्दी बताओ जल्दी बताओ मैंने झिड़क दिया यह कहकर बहुत बोल चुके अब शांत हो जाओ देखकर मेरे तेवर, उसका अदना सा मन सहम गया मुझ

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